दो तरह की विचारधाराएं हमेशा से इस दुनिया का हिस्सा रही हैं। दोनों ही विचारधाराओं का विरोध करने वाले भी रहे हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह हमेशा से होता रहा है और भविष्य में भी होता रहेगा। लेकिन कुछ सवाल उठने लाजिमी हैं, जब विरोध वैचारिक न होकर अभद्र और हिंसक रूप धारण कर ले।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक विवादास्पद मुद्दा है और जब कमर्शियल सिनेमा बनाने वाले इसकी बात करें तो उनके साथ ज्यादा सहमति का कोई कारण नहीं दिखता। अभिव्यक्ति मौलिक हो तो उसकी स्वतंत्रता का दावा उचित समझ में आता है लेकिन इतिहास का नाट्य रूपांतरण आपकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कथित अधिकार की गारंटी को खत्म भले न करे लेकिन काफी हद तक सीमित कर देता है। किसी चीज को दोहराना और अपनी सुविधा के हिसाब से बदलना, कला या अभिव्यक्ति नहीं है।
कुछ फिल्मकारों को लगता है कि बड़े पैमाने पर फिल्मकारी करने से उनके पास ऐतिहासिक तथ्यों को अपनी सुविधा के हिसाब से तोड़-मरोड़ कर दिखाने का लायसेंस आ जाता है। फिल्म निर्माण की कथित औद्योगिक प्रोसेसिंग के नाम पर तथ्यों को बदलना और उनका फिल्मीकरण करना एक बेहद वीभत्स कारगुजारी तो हो सकती है लेकिन कला नहीं कही जा सकती। और जब किसी फिल्मकार के साथ यह विवाद बार-बार जुड़े तो उसकी मंशा पर शक होता ही है।
पीरियड फिल्म कहना, पात्रों को एक खास काल में स्थान विशेष से जोड़ कर नाटक रचना, बाद में एक मासूम सा अस्वीकरण यानि डिस्क्लेमर देकर अपने कृत्य को जायज ठहराना, धंधा करने का यह बेहद धूर्ततापूर्ण तरीका है। यदि आप सचमुच इतिहास का निर्दोष चित्रण करना चाहते हैं, तो आपको पापुलर सिनेमा के दायरे से बाहर आकर यथार्थवादी सिनेमा बनाने का जोखिम उठाना होगा। तब आपके सामने नकार दिए जाने खतरा भी होगा और व्यावसायिक रूप से विफल होने की पूरी संभावना भी होगी लेकिन तमाचा पड़ने का जोखिम भी शायद कम होगा।
खेद की बात यह है कि लोग तमाचा खाने का जोखिम उठाने को तैयार हैं लेकिन व्यावसायिक विफलता को बर्दाश्त नहीं करना चाहते। नतीजा… तमाचा, तोड़-फोड़। हालांकि इसकी जरूरत नहीं है क्योंकि फिल्मकारों से असहमति जताने का सबसे अच्छा तरीका है कि उनकी फिल्म नहीं देखी जाए। उनके काम को नकार कर ज्यादा प्रभावी तरीके से विरोध किया जा सकता है।
इतिहास में जिस किरदार की मौजूदगी को लेकर ही सवाल उठते हैं, उसके फिल्मांकन के तरीके को लेकर विवाद खड़ा करना भी एक सोचने का मुद्दा है।