मैंने यह सोच रखा था कि महामारी के बारे में कुछ नहीं लिखूंगा लेकिन आज इन पंक्तियों को लिखते वक्त मुझे अपने उस फैसले को बदलना पड़ रहा है। देख रहा हूं कि कैसे लोगों ने मौत को मुनाफे का धंधा बना लिया है। दवाओं की कालाबाजारी हो रही है। ऑक्सीजन के सिलिंडर भरने के लिए मनचाहे पैसे लिए जा रहे हैं। अस्पतालों में तिल धरने को जगह नहीं है और इस सबके बाद जो मर रहे हैं उन्हें मुक्तिधाम पहुंचने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। शव ढोने वाले हजारों रुपए मांगते हैं, जलाने वाले भी हजारों मांगते हैं। अंतिम संस्कार के लिए अब पैकेज दिए जा रहे हैं और वे भी छोटे मोटे नहीं हजारों में ही हैं। मतलब अस्पताल में लुटने से अगर बच गए हो तो हम श्मशान में भी नोच खाने के लिए तैयार बैठे हैं।
मुझे इन सब पर भी इतना ऐतराज नहीं है लेकिन जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा क्रोधित किया वह वैक्सीन बनाने वाली कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट के मालिक की नीचता भरी हरकत है। मैं सिर्फ एक बार इसका नाम लूंगा। अदार पूनावाला अब से कुछ महीने पहले तक किसी देवदूत की तरह नजर आने वाला इंसान था। टीकाकरण शुरू हुआ तो उसने सरकारी पैसों से बनाई गई दवा की कीमत भी वाजिब रखी। तो लगा कि सचमुच भला इंसान है। लेकिन जल्द ही मुखौटा उतर गया। जैसे ही सरकार ने सबको वैक्सीन लगवाने के योग्य करार दिया, इस व्यक्ति ने अपनी असलियत सबके सामने ला दी।
150 रुपए की वैक्सीन को 400 और 600 रुपए में बेचने की घोषणा कर दी। विरोध हुआ तो बोला दानस्वरूप 100 रुपए कम कर रहा है। इससे कोई पूछे कि भाई तू कौन होता है दान देने वाला? सरकार ने जनता के कर से मिले पैसे का दान इसकी कंपनी को दिया, जिससे उसने टीके बनाए। ऑक्सफर्ड एस्ट्रोजैनेका ने शोध कर टीका तैयार किया था। तुमने क्या किया मिस्टर मुनाफाखोर? सरकार के दान से मिले पैसे से टीके बना कर सरकार को ही बेचे हैं और खुद माना कि 150 रुपए में भी मुनाफा हुआ। फिर उसे चार गुना तक बढ़ाने की मुनाफाखोरी करने का साहस कैसे कर सकते हो?
भारत सरकार को चाहिए कि सीरम इंस्टीट्यूट का अधिग्रहण कर ले। दूसरी बार नाम ले रहा हूं, अदार पूनावाला को महामारी के दौरान अनैतिक तरीके से मुनाफाखोरी करने के इल्जाम में गिरफ्तार कर आजीवन कारावास में भेज दिया जाए। भारत ने कोविशील्ड से कहीं ज्यादा प्रभावकारी साबित हो रही फाइजर की वैक्सीन को मंजूरी नहीं देने की जो गलती की थी, उसे सुधारा जाए।