टोक्यो ओलंपिक के खाली स्टेडियमों में कुछ पल ऐसे थे जिन्हें भारतीय खेलों के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा। कुल मिला कर मिले 7 पदक और हम आबादी के हिसाब से दुनिया के दूसरे देश हैं। पहले नंबर पर चीन है और वो ओलंपिक खेलों में हमसे मीलों आगे है। खैर इन बातों को भूल जाएं।
मैं टोक्यो में कुछ ऐसे पलों के बारे में बात करना चाहता हूं जिन्हें दस्तावेजों में शायद उस तरह दर्ज नहीं किया जाएगा जैसे वे हुए। सबसे ऊपर है महिला हॉकी टीम का सेमी फाइनल मुकाबले में हार के बाद कांस्य पदक के लिए ग्रेट ब्रिटेन के खिलाफ हुआ मैच।
पहली बार देखा कि तमाम कमियों और सीमाओं के बावजूद टीम ने डट कर लोहा लिया और लड़कर हारीं। जबर्दस्त प्रदर्शन था। खुद ग्रेट ब्रिटेन हॉकी ने इसके सामने सिर झुकाया। कसक इतनी सी है कि अगर ऐसी जान लगा कर सेमी फाइनल में अर्जेंटीना के खिलाफ खेले होते तो कौन जानता है, एक और स्वर्ण या रजत पदक हमारे खाते में होता।
गॉल्फ के बारे में आम भारतीय खेल प्रेमी बहुत ज्यादा नहीं जानता लेकिन अचानक एक लड़की ने पूरे देश को इस तरह उत्तेजित कर दिया कि पहली बार लगा सचमुच देश में अब विश्व स्तर के खिलाड़ी आ चुके हैं। हालांकि ये लाखों नहीं सैकड़ों करोड़ों में एक हैं। अदिति गौरव आशाओं के उसी हिंडोले को पंख लगाती है।
पहलवान और भारोत्तोलक तो हमेशा से ओलंपिक में और खेलों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करते आए हैं इसलिए उनका जीतना सामान्य प्रकिया का हिस्सा बन चुका है अलबत्ता सबसे बड़ी निराशा का विषय निशानेबाज (शूटर्स) और धनुर्धर (आर्चर्स) हैं। ये हर बार कथित विश्व चैंपियनशिप में जीत के बड़े बड़े दावे कर के आते हैं लेकिन जब ओलंपिक का मैदान आता है तो इनमें से कुछ एक ही हैं जो शीर्ष के आसपास ठहर पाते हैं। इन दोनों खेल पर जितना पैसा लगता है, उसके औचित्य पर अब कई सवाल उठने लगे हैं। क्या उस पैसे का कहीं और बेहतर उपयोग नहीं किया जाना चाहिए… दूसरे खेलों में।
कुल मिला कर यह एक अरब से ज्यादा आबादी वाले देश के लिए एक और निराशाजनक ओलंपिक ही रहा। लगता नहीं कि जल्द ही बहुत ज्यादा बदलाव हो पाएगा।