भाषा विवाद : सांस्‍कृतिक पहचान बचाने की आड़ में हिंदी विरोध की राजनीति का पुराना खेल

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भारत में भाषा विवाद एक लंबे समय से चल रहा मुद्दा है, जो देश की बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक पहचान से जुड़ा हुआ है। यह विवाद मुख्य रूप से भाषाई पहचान, शिक्षा, प्रशासन और रोजगार से संबंधित मुद्दों पर केंद्रित है। त्रि-भाषा फॉर्मूला (Three Language Formula) इस विवाद का एक प्रमुख हिस्सा है, जो भारत की भाषाई विविधता को संतुलित करने का प्रयास करता है। आइए इसकी पृष्ठभूमि, इतिहास और वर्तमान विवाद को विस्तार से समझते हैं।

त्रि-भाषा फॉर्मूले की पृष्ठभूमि और इतिहास

भारत की भाषाई विविधता: भारत एक बहुभाषी देश है, जहां 22 आधिकारिक भाषाएं और सैकड़ों बोलियां बोली जाती हैं। संविधान के अनुच्छेद 343 के तहत हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है, जबकि अंग्रेजी को सह-राजभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसके अलावा, विभिन्न राज्यों की अपनी आधिकारिक भाषाएं हैं।

त्रि-भाषा फॉर्मूले का उद्देश्य: त्रि-भाषा फॉर्मूला भारत सरकार द्वारा 1968 में शिक्षा नीति के तहत प्रस्तावित किया गया था। इसका उद्देश्य भारत की भाषाई विविधता को संतुलित करना और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना था। इस फॉर्मूले के तहत छात्रों को तीन भाषाएं सीखने की सलाह दी गई:
पहली भाषा: मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा।
दूसरी भाषा: हिंदी (हिंदी भाषी क्षेत्रों में कोई अन्य भारतीय भाषा)।
तीसरी भाषा: अंग्रेजी या कोई अन्य आधुनिक भारतीय भाषा।

फॉर्मूले का कार्यान्वयन: हालांकि, इस फॉर्मूले का कार्यान्वयन पूरे देश में एक समान नहीं रहा। दक्षिण भारत के कुछ राज्यों, जैसे तमिलनाडु, ने हिंदी को लागू करने का विरोध किया और केवल द्वि-भाषा फॉर्मूले (मातृभाषा और अंग्रेजी) को अपनाया।

वर्तमान विवाद

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020: जुलाई 2020 में, भारत सरकार ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) लागू की, जिसमें त्रि-भाषा फॉर्मूले को फिर से प्रमुखता दी गई। इस नीति के तहत, छात्रों को तीन भाषाएं सीखने की सिफारिश की गई है, जिसमें हिंदी और अंग्रेजी को शामिल किया गया है।

दक्षिण भारत में विरोध: NEP 2020 के तहत त्रि-भाषा फॉर्मूले को लेकर दक्षिण भारत के कुछ राज्यों, विशेषकर तमिलनाडु, में व्यापक विरोध हुआ। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने हमेशा की तरह इस नीति का विरोध करते हुए कहा कि यह हिंदी को थोपने का प्रयास है और यह राज्य की भाषाई पहचान के लिए खतरनाक है। तमिलनाडु ने द्वि-भाषा फॉर्मूले (तमिल और अंग्रेजी) को ही जारी रखने का फैसला किया।

राजनीतिक और सांस्कृतिक मुद्दा: दक्षिण भारत के लिए यह विवाद केवल भाषाई नहीं है, बल्कि यह राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान से भी जुड़ा हुआ है। दक्षिण भारत के राज्यों का मानना है कि हिंदी को थोपने से उनकी क्षेत्रीय भाषाओं और संस्कृति को नुकसान पहुंचेगा। वहीं, हिंदी भाषी राज्यों का तर्क है कि हिंदी राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने का माध्यम है।

शिक्षा और रोजगार से जुड़े मुद्दे: भाषा विवाद का असर शिक्षा और रोजगार पर भी पड़ता है। दक्षिण भारत के राज्यों के कई छात्रों को हिंदी या अंग्रेजी में दक्षता न होने के कारण शिक्षा और रोजगार के अवसरों में कमी का सामना करना पड़ता है। यही बात उत्तर भारत के छात्रों पर भी लागू होती है, जो रोजगार करने जब दक्षिण भारत के राज्‍यों में जाते हैं तो स्‍थानीय भाषा नहीं जानने का खामियाजा उन्‍हें भुगतना पड़ता है। इसके बावजूद, केंद्रीय नौकरियों में हिंदी का प्रयोग अनिवार्य करने के कथित प्रयासों को भी विवादास्पद माना जाता है।

जानकारों का मानना है कि भारत में भाषा विवाद एक जटिल और संवेदनशील मुद्दा है, जो देश की भाषाई और सांस्कृतिक विविधता को प्रतिबिंबित करता है। त्रि-भाषा फॉर्मूला इस विवाद का शुरू से एक प्रमुख पहलू है, जिसे लेकर अलग-अलग राज्यों के बीच मतभेद हैं। इस विवाद का समाधान भाषाई संतुलन, संवाद और सहमति के माध्यम से ही संभव है।

भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए भाषाई विविधता का सम्मान करना और सभी भाषाओं को समान महत्व देना आवश्यक है। इसके बावजूद यह साफ है कि तमिलनाडु का हिंदी विरोध राजनीतिक निहितार्थों से प्रेरित है और यह हिंदी को जबर्दस्‍ती थोपने के एक काल्‍पनिक तर्क को आधार बनाने का निरर्थक प्रयास ही है।

तमिल नेताओं के अधिकांश तर्क झूठे हैं, त्रिभाषा फार्मूले को हिंदी थोपने का प्रयास कैसे कहा जा सकता है जबकि उनकी अपनी भाषा को इसमें पहले प्राथमिकता दी गई है। तमिलनाडु का हिंदी विरोध पूर्वाग्रह से ग्रसित सोच नहीं तो और क्‍या है.. बल्कि इसे दुराग्रह क्‍यों न माना जाए। यह दुराग्रही मानसिकता का प्रतीक है कि तमिलनाडु ने हमेशा द्वि-भाषा फॉर्मूले (तमिल और अंग्रेजी) को अपनाया है, और इसे ही जारी रखने का फैसला किया है।