मेरी नानी चरखा कातती थीं। मेरी माँ ने मुझे और मेरे भाई को दिखाने के लिए चरखा काता। मैंने भी हाथ आजमाने की कोशिश की लेकिन उम्र में छोटा होने के कारण सूत संभाल नहीं पाता और वह बार-बार टूट जाता था। मेरी नानी ने एक बार कहा कि जब तू बड़ा हो जाएगा तो तुझ से भी चरखा कातते बनेगा। फिर मैं बड़ा हो गया लेकिन चरखा कातना नहीं सीख सका क्योंकि मेरी नानी नहीं रही और हमने गांव जाना छोड़ दिया था।
पंजाब के गांवों में तब यानी अस्सी के दशक में चरखा कातना कोई अनोखी बात नहीं थी। गांव की बुजुर्ग महिलाएं दिनभर बैठ कर चरखा कातती थीं। यह कमाई का साधन तो नहीं था लेकिन सूत कताई के लिए कुछ पैसे मिलते थे। मैं अक्सर नानी से पूछता था कि वो चरखा क्यों कातती है? नानी बस धीरे से हंस देती। एक दिन उसने मेरे सवाल के जवाब में बताया, महात्मा गाँधी ने कहा था कि सबको चरखा कातना चाहिए। इससे आत्मशुद्धि होती है। मैं उस वक्त इस बात को समझने के लिए बहुत छोटा था। लेकिन मेरी जिज्ञासाओं को देखकर मां ने ही मुझे बताया था कि महात्मा गाँधी कौन थे। चरखा कातने से शांति मिलती है। एकाग्र रहने का अभ्यास होता है और इंसान शांत रहकर मनन करने में सक्षम बनता है।
मैंने सहज तरीके से अपनी माँ की दी हुई सीखों को आत्मसात कर लिया था। मुझे उन सीखों को किसी कसौटी पर कसने की जरूरत नहीं थी क्योंकि यह उस विशाल विरासत का ही हिस्सा है जो हर माँ अपने बच्चों को सौंपती है। मैंने गाँधी के बारे में पहली बार मेरी माँ से जाना और बाद में अपने स्कूल की पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा। कालांतर में मेरी सोच विकसित होती रही और अन्य चीजों की तरह मैंने गाँधी के बारे में भी अपनी विचारधारा तय की। यह आज महत्वपूर्ण नहीं है कि मैं गाँधी के बारे में क्या सोचता हूं क्योंकि वह एक विचारधारा है एक वाद है, जिसे लेकर तमाम किस्म के विवाद होते रहे हैं। सबको अपने तरीके से सोचने का अधिकार है। लेकिन क्या गाँधी के बारे में किसी की विचारधारा को एक कैलेंडर पर लगी तस्वीर बदल सकती है? क्या एक तस्वीर किसी विचारधारा को बदल सकती है? कम से कम अपने बारे में तो मुझे पता है कि ऐसा नहीं हो सकता।
इसके साथ ही मुझे यह भी समझ आता है कि भले ही कोई गाँधी की तस्वीर की जगह अपनी तस्वीर लगवा ले लेकिन गाँधी की जगह कोई नहीं ले सकता। टीवी पर देखा, कोई कह रहा था कि भारत की मुद्राओं पर से गाँधी की तस्वीरें हटाई जाएंगी। हाँ आप ऐसा कर सकते हैं लेकिन गाँधी की जो जगह आज भारत के इतिहास से संबद्ध है, दुनिया में गाँधी का जो स्थान है, उसे आप उनसे छीन नहीं सकते। आप अपने नए प्रतिमान गढऩे के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन पूर्व स्थापित, समय की परतों से नैसर्गिक तरीके से जुड़े और सहज प्रतिमानों को बदल नहीं सकेंगे। ऐसा क्यों होना चाहिए? यह किस तरह के नए अधिनायकवाद को थोपने का नाहक सा प्रयास है, पता नहीं। लेकिन यह अवश्य पता है कि ऐसा होगा नहीं।
मेरी बेटी अब लगभग उसी उम्र की है, जिसमें मैंने अपनी नानी से चरखे और गाँधी के बारे में जाना था। और अब मैंने तय किया है कि मेरी बेटी को भी चरखे और गाँधी के बारे में उसी तरह बताउंगा, जैसे मेरी नानी और मेरी माँ फिर मेरे पिता और शिक्षकों ने मुझे बताया था। जब बड़ी होगी तो अन्य बातों की तरह, मेरी बेटी भी यह स्वयं तय करेगी कि उसके गाँधी कौन हैं। मैं जानता हूं कि इंटरनेट पर गाँधी सर्च करने पर उसे सर रिचर्ड एटनबरो और बेन किंग्सले भी मिलेंगे। इसलिए मैं उसे इसके बारे में भी बताउंगा ताकि वह भ्रमित नहीं हो। मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि वह किसी और तस्वीर को देखकर गाँधी समझने का भ्रम नहीं पाले।