पिछले सप्ताहांत कर्नाटक में मैसूरु के पास चिकल्ली और कोप्पल में हुए दो सड़क हादसों में दो पुलिसकर्मियों और एक किशोर की दर्दनाक मौत हो गई। बेंगलूरु और आसपास के इलाके में रोज ऐसी घटनाएं होती हैं, जिनमें किसी न किसी की जान जाती है तो इस घटना में कोई विशेष बात नहीं, सिवाय इसके कि मरने वाले दो पुलिसकर्मी थे। पहली नजर में यह असंवेदनशील बयान लगता है लेकिन सच इतना ही नहीं है। इन दोनों घटनाओं के साथ एक ऐसी विद्रूप सच्चाई भी जुड़ी है, जिसे २१वीं सदी की असंवदेनशील जीवनशैली का उदाहरण कहना अनुचित नहीं होगा।
दोनों घटनाओं से जुड़ा एक पहलू ऐसा है, जिस पर अब गंभीरता से सोचने का समय आ चुका है। मैसूरु पुलिस का कहना है कि उसके अधिकारियों की जान बच सकती थी, बशर्ते मौके पर मौजूद लोग उनकी तुरंत मदद करते। मामला यह था कि दुर्घटना के बाद खून से लथपथ इंस्पेक्टर महेश कुमार और जीप का चालक दुर्घटनाग्रस्त जीप में फंसे रहे। तेजी से रक्तस्राव के कारण अस्पताल पहुंचाने के बावजूद उनकी मौत हो गई। पुलिस का कहना है कि उस वक्त मौके पर मौजूद लोगों ने उनकी मदद नहीं की बल्कि अपने मोबाइल कैमरों से उनकी तस्वीरें खींचते और वीडियो बनाते रहे। बिल्कुल यही सब कोप्पल में हुई घटना के दौरान भी हुआ, जहां लोगों ने बुरी तरह घायल किशोर की मदद नहीं की और उसे जान गंवानी पड़ी।
किसी भी दुर्घटना के बाद वहां मौजूद लोगों की यह सबसे शर्मनाक और आपत्तिजनक हरकत है। यह पहला मौका नहीं है जब किसी दुर्घटनास्थल पर मौजूद लोगों ने तमाम मानवीय सरोकारों को ताक पर रखते हुए ऐसी असंवेदनशीलता का परिचय दिया। कुछ दिन पहले बेंगलूरु के लाल बाग में एक बच्चे के सिर पर पत्थर का पिलर गिरने से हुई मौत के मामले में भी यही हुआ था। बच्चे के परिजनों ने कहा कि मौके पर मौजूद लोगों ने उनकी मदद नहीं की उल्टे बेशर्मी के साथ एक मरते हुए बच्चे की तस्वीरें खींचते रहे। अगर समय रहते इलाज मिलता तो शायद आज वह जीवित होता।
पिछले साल हुई एक और सड़क दुर्घटना में युवक के शरीर के दो टुकड़े हो गए और वह मरने से पूर्व अपने अंगदान करने की अपील करता रहा। उसके आसपास से दर्जनों गाडिय़ां गुजरती रहीं और लोगों ने उसे तिल-तिल कर मरते देखा लेकिन किसी ने उसकी मदद नहीं की और बेशर्मी के साथ एक बेबस मौत की तस्वीरें खींचते रहे। फिर वही वीभत्स तस्वीरें और वीडियो समाचार चैनलों पर बार-बार चलाए गए।
दुर्घटना में मारे गए उसी युवक हरीश के नाम पर ही बाद में राज्य सरकार ने एक योजना शुरू की लेकिन तब से हालात में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया है। न लोगों की असंवेदनशीलता कम हुई है न बेशर्मी, उल्टे हर किसी के हाथ में कैमरे वाले मोबाइल फोन होने का यह दुष्परिणाम है कि लोग बिना कुछ सोचे समझे तस्वीरें खींचते हैं और सोशल मीडिया पर शेयर करते हैं। इस पर गहराई से शोध करने की जरूरत है कि यह किस सामूहिक असंवेदनशीलता और असभ्य मानवीय व्यवहार का उदाहरण है ताकि यह पता चल सके कि वे कौन से कारण हैं, जिनके चलते लोग ऐसी हरकतें करते हैं। किसी मरते हुए व्यक्ति की मदद करने के बजाय उसकी तस्वीरें खींचने या वीडियो बनाने से ज्यादा आपत्तिजनक, असंवेदनशील, कठोर व असभ्य और कुछ नहीं हो सकता।
यह तकनीकी क्रांति का दौर है और कैमरों वाले मोबाइल आम जिंदगी का हिस्सा हैं लेकिन इनके इस्तेमाल को लेकर अब एक आचार संहित बनाने की दरकार है। यह सामूहिक मूर्खता बंद होनी चाहिए। लोग पुलिस के पचड़े में पड़ने के डर से दुर्घटना के बाद मदद के लिए आगे नहीं आते तो यह बात समझ में आती है लेकिन जेब से मोबाइल निकालकर एम्बुलेंस और पुलिस को बुलाने के बजाय वीडियो बनाने की जाहिल प्रवृत्ति के बारे में क्या कहा जाए?
यह सभ्य समाज की ऐसी असभ्यता है, जो सामूहिक प्रवृत्ति के रूप में पल बढ़ रही है। दुर्भाग्य से इसे रोकने के लिए अब तक कोई कदम नहीं उठाया गया है। अब समय आ गया है कि इसे रोकने के लिए सरकार कड़ी आचार संहिता बनाए और उसे सख्ती से लागू किया जाए। किसी को भी ऐसे मौकों पर मोबाइल से तस्वीरें खींचने या सोशल मीडिया पर शेयर करने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। मौत का तमाशा बनाना किसी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार नहीं है।
इस मामले में अमेरिकी पुलिस के कानून सख्त हैं और भारत में भी ऐसा ही कुछ करने की पहल की जानी चाहिए। कुछ साल पहले अमेरिकी पुलिस ने ओहायो में एक व्यक्ति को इसलिए गिरफ्तार किया था क्योंकि उसने रुक कर दुर्घटना का वीडियो बनाया लेकिन पीडि़तों की मदद नहीं की। इस लिंक में यह खबर पढ़ी जा सकती है। अमेरिकी पुलिस की यह चेतावनी हम सब पर भी लागू होती है: पढ़े
Rendering aid or comfort to a dying young man and his severely injured friend is a commendable and kindly act. Persons are not, however, allowed to trespass into a person’s vehicle … for the seemingly singular cause of filming a young man’s dying moments, for profit.